हर व्यवसाय के जीवन में अलग अलग चरणों पर पूँजी की ज़रुरत होती है| उद्योग शुरु करते समय प्रारंभिक पूँजी की जरूरत होती है| उसके बाद नए उपकरण खरीदना, जगह में निवेश, नये उत्पाद निर्माण करना, कर्मचारियों की संख्या बढाना, सूचना प्रौद्योगिकी में सुधार इत्यादि – इस लम्बी सूची के लिये भी पूँजी की ज़रूरत होती है| ऐसे स्थिति में “पूँजी की लागत” यह संकल्पना अच्छी तरह समझ लेना ज़रूरी है|
पूँजी इकट्ठा करने के अनेक तरीके होते हैं| उन में मुख्यतः २ तरीके हैं – इक्विटि और ऋण (डेट). इक्विटि के मामले में निवेशक व्यवसाय में हुए नफे में हिस्सेदार होते हैं| मतलब वह व्यवसाय में एक तरह से भागीदार बनते हैं| बँक, NBFC और वित्तीय संस्थाओं से ऋण लिया जाता है – और ऋण पर ब्याज और ऋण की रकम वापिस चुकाई जाती है|
उपर दिये गये पूँजी के हर प्रकार की अलग लागत होती है| जो पूँजी इकट्ठा की जाती है उसे अलग अलग संपत्ति में निवेशित किया जाता है|
“पूँजी का लागत” को दो तरह से देखा जा सकता है:
- पूँजी इकट्ठा करना
- पूँजी का उपयोग
पूँजी इकट्ठा करते समय जिस ब्याज दर पर ऋण लिया जाता है उसे पूँजी की लागत कहतें हैं| पूँजी का निवेश करते समय उसपर मिलने वाले प्रतिफल को पूँजी की लागत कहतें हैं|
पूँजी इकट्ठा करने की लागत की तुलना में उसपर मिलने वाला प्रतिफल अधिक है या नहीं इसपर निवेश की व्यवहार्यता सिद्ध होती है|
लघु उद्योगों पर पूँजी की लागत का असर देखते हैं:
लघु उद्योगों के लिए “पूँजी की लागत” का महत्त्व
लघु उद्योग में नकद प्रवाह (कॅश फ्लो) बनाये रखना बहुत ज़रूरी होता है| कॅश फ्लो मतलब उद्योग के फायदे का वह अंश जिसका उद्योग के दैनंदिन व्यवहार पर बिना असर किये निवेश कर सकते हैं| कॅश फ्लो को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक होता है कार्यशील पूँजी (वर्किंग कॅपिटल)| माल प्रदायक को पैसे देने और ग्राहकों से पैसे आने में अक्सर काफ़ी वक्त होता है| इस वक्त के लिए पूँजी इकट्ठा करना, वेतन देना, आर्डर तत्काल पूरी करना, मौसमी उद्योग का उतार चढाव इत्यादि सब के लिए वर्किंग कॅपिटल का उपयोग किया जाता है|
बड़ी कंपनीयों में वर्किंग कॅपिटल के प्रबंधन के लिए विशिष्ट टीम नियुक्त की जाती है| लेकिन लघु उद्योगों में यह ज़िम्मेदारी मालिक या फिर प्रमुख कर्मचारियों की होती है| दैनंदिन ज़रूरतों पर ध्यान देना मुश्किल होता है और कई बार पैसों की ज़रुरत और उपलब्धता में अंतर निर्माण हो जाता है|
इस कमी को पूरा करने के लिए उद्योग को तत्काल पूँजी की ज़रुरत होती है – साधारण तौर पर इसका मतलब NBFC या अन्य संस्थाओं से व्यावसायिक ऋण लेना होता है| इस स्थिति में ऋण पर लगाया हुआ ब्याज दर मतलब “पूँजी की लागत” होती है| ऋण पर जो ब्याज देना होता है उसकी तुलना में ऋण का निवेश कर उसका प्रतिफल कितना मिलता है इसका मूल्यांकन उद्योग को करना पड़ता है|
पूँजी की लागत पर उद्योग के विशिष्ट कारणों का या बाहर की स्थिति का प्रभाव पड़ता है| चलिए ये सारे कारण देखते हैं|
पूँजी की लागत को प्रभावित करने वाले कारक
१. पूँजी के लिए बाजार में मांग और आपूर्ति
पूँजी की मांग और आपूर्ति का पूँजी की लागत पर प्रभाव पड़ता है| अर्थव्यवस्था में पूँजी की मांग बढ़ने से ऋण देने वाली संस्थाएं ब्याज दर बढ़ा देती हैं| मांग कम होने से ब्याज दर कम हो जाता है| पूँजी की आपूर्ति और पूँजी की लागत व्युत्क्रमानुपाती होतें हैं| आपूर्ति बढ़ते ही ब्याज दर कम होतें हैं और आपूर्ति कम होने से दर बढ़ जातें हैं|
२. बाजार की परिस्थिति:
पूँजी की लागत की गणना करते समय जिस उद्योग क्षेत्र में निवेश करना है उसकी परिस्थिती महत्त्वपूर्ण होती है| जोखिम भरी परियोजनाओं के लिए पूँजी की लागत अधिक होती है क्योंकि ऋण देने वाली संस्थाएं नुकसान की भरपाई के लिए अधिक ब्याज दर निश्चित करती हैं| इसके विपरीत अगर बाजार में ऐसी स्थिति है कि परियोजना में निश्चित व सुरक्षित फायदा होना है तो जोखिम कम होता है और ब्याज दर कम होने से पूँजी की लागत भी कम हो जाती है|
३. उद्योगों के विशिष्ट धोके:
हर निवेश में उस उद्योग क्षेत्र से संबंधित विशिष्ट धोके होते हैं| यह धोके मुख्यत: २ प्रकार के होते हैं: व्यावसायिक और वित्तीय| कंपनी ने निवेश से संबंधित लिए हुए निर्णय व्यावसायिक धोके का कारण बनते हैं| वित्तीय धोके पूँजी के बारे में लिए गए निर्णयों से निर्माण होते हैं, जैसे पूँजी इकट्ठा करते समय इक्विटि और डेट का प्रमाण| व्यावसायिक और वित्तीय धोका, इन दोनों का कंपनी के कुल पूँजी की लागत पर प्रभाव पड़ता है| पूँजी की लागत कंपनी के कुल धोके के प्रमाण में बढ़ती है|
४. इकट्ठा की गयी पूँजी की रकम
अगर बहुत ज्यादा पूँजी इकट्ठा की जाती है तो संबंधित खर्च और धोका भी बढ़ जाता है, जिससे पूँजी की लागत में वृद्धी होती है| अगर बहुत ज्यादा पूँजी इकट्ठा की जाये तो लिक्विडिटी धोका बढ़ता है और फलस्वरूप पूँजी की लागत भी बढती है| अगर कंपनी कम पूँजी इकट्ठा करती है तो कर्ज देने वाली संस्था को अपनी रकम वापिस मिलने का भरोसा होता है और पूँजी की लागत कम हो जाती है|
५. आयकर के नियम:
उद्योग की पूँजी संरचना पर आयकर के नियमों का बहुत प्रभाव पड़ता है, और फलस्वरूप पूँजी की लागत भी प्रभावित होती है| वापिस किये हुए ब्याज से कर में राहत मिलती है और इसलिए ऋण लेकर पूँजी इकट्ठा करना (व्यावसायिक ऋण) उचित होता है| पूँजी संरचना में ऋण का हिस्सा जितना ज्यादा होता है उतनी ही पूँजी की लागत कम होती है|
पूँजी की लागत को प्रभावित करने वाले कारक चित्ररूप में नीचे दिए हैं|
पूँजी की लागत की गणना: पूँजी की लागत का भारित औसत (वेटेड अॅवरेज कॉस्ट ऑफ कॅपिटल -WACC)
हमने लघु उद्योग पर पूँजी की लागत का परिणाम और उस पर प्रभाव डालने वाले कारक देखे| अब इस लागत की गणना कैसे की जाती है ये देखतें हैं|
किसी भी उद्योग की पूँजी संरचना में हर प्रकार के पूँजी का विशिष्ट हिस्सा (प्रतिशतसे) होता है| इस संरचना में डेट और इक्विटि पूँजी को योग्य महत्त्व देते हुए WACC (कुल पूँजी की लागत का औसत) की गणना की जाती है| WACC का उपयोग कर कंपनी ने जितनी पूँजी का निवेश किया है उस पर मिलने वाला न्यूनतम प्रतिफल पता चलता है|
किसी उद्योग का मूल्यांकन करते समय WACC का इस्तमाल डिसकाऊंट रेट के लिए किया जाता है| (उद्योग में भविष्य में होने वाले अपेक्षित नकद प्रवाह का वर्तमान में मूल्य निकलने के लिए उपयोग में लाये जाने वाले ब्याज दर को डिसकाऊंट रेट कहते हैं|)
इक्विटि रिस्क प्रीमियम:
सरकारी बॉन्ड पर मिलने वाला प्रतिफल धोका-मुक्त समझा जाता है| लेकिन इक्विटि निवेश में धोका अधिक होता है और इसलिए मिलने वाला प्रतिफल भी अधिक होता है| इन दोनों प्रतिफल में जो अंतर होता है उसे इक्विटि रिस्क प्रीमियम कहतें हैं|
बीटा:
इक्विटि बाजार में मिलने वाले प्रतिफल की तुलना में किसी विशिष्ट स्टॉक के प्रतिफल में बदलाव को बीटा कहतें हैं| बीटा की मदद से इक्विटी निवेश के धोके को देखते हुए उसकी कुल लागत की गणना की जाती है|
धोका-मुक्त दर:
सरकारी बॉन्ड पर मिलने वाले ब्याज दर को धोका-मुक्त दर कहतें हैं|
ऋण पर औसतन प्राप्ति:
ऋण देने वाली संस्था जो ब्याज दर निश्चित करती है उसे ऋण पर औसतन प्राप्ति कहा जाता है|
कर से मिलने वाली राहत:
उद्योग द्वारा चुकाये जाने वाले ब्याज पर आयकर से राहत मिलती है| अन्य मार्ग से मिली आय की जगह पर इस ब्याज का उपयोग कर सकते हैं, और फलस्वरूप उद्योग को कम आयकर भरना पड़ता है|
व्यावसायिक ऋण के सर्वोत्तम उपयोग और योग्य पूँजी संरचना के लिए पूँजी की लागत की जानकारी होने से लघु उद्योगों को बहुत फायदा हो सकता है|
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